योग: कर्मसु कौशलं
योग (Yoga) शब्द संस्कृत के ‘ युज ‘ धातु से बना हैं जिसका अर्थ है, जोड़ना । अर्थात् किसी कार्य से जुड़ना। जीवन के मुख्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए मन से शरीर से जो अनुष्ठान करने होते है, वही योग हैं। महर्षि पतंजलि ने योग को परिभाषित, चित्त की वृत्तियों के सर्वथा अभाव ही योग हैं, इस प्रकार किया है। गीता में श्रीकृष्ण ने दुःख रूप संसार से वियोग तथा परमात्मा के साथ संयोग को योग कहा। योग वह साधना है जिसमें आत्मा व परमात्मा का ज्ञान पूर्वक संयोग होता है। वेद – पुराण व उपनिषद, योगवशिष्ट, दर्शनों में योग की महत्ता का वर्णन मिलता है। सभी में योग को मोक्ष, निर्वाण, समाधि प्राप्ति का साधन माना गया है। योग सभी साधनाओ में सर्वश्रेष्ठ साधना पद्धति है। जो कि शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य प्रदान करते हुए मोक्ष प्रदायी है। जैसा कि श्वेताश्वतर उपनिषद में योग (Yoga) का फल बताया गया है, “न तस्य रोगो ”
अर्थात् मनुष्य जीवन के चारो पुरूषार्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के मूल में आरोग्य है, तथा उस आरोग्य को देने वाला योग है।
महर्षि पतंजलि का अष्टांग योग
योग के 8 अङ्ग होते हैं।
1) यम
2) नियम
3) आसन
4) प्राणायाम
5) प्रत्याहार
6) धारणा
7) ध्यान
8) समाधि
१) योग (Yoga) के प्रथम अंग ‘यम’ के पांच विभाग है:-
(क ) अहिंसा (ख ) सत्य (ग ) अस्तेय (घ ) ब्रह्मचर्य (ड.) अपरिग्रह
यम के पाँच विभागों की परिभाषा तथा उनके फल:-
1.अहिंसा– मन,वाणीऔर शरीर सब समय सभी प्राणियो के साथ वैरभाव त्याग कर प्रेमपूर्वक व्यवहार करना ‘अहिंसा’ कहलाती है।
अहिंसा का फल- अहिंसा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति के मन से समस्त प्राणियो के प्रति वैर भाव (द्वेष) छूट जाता है, तथा उस अहिंसक के सत्संग एवं उपदेशानुसार आचरण करने से अन्य व्यक्तियो का भी अपनी -अपनी योग्यतानुसार वैर-भाव छूट जाता है।
2.सत्य– जैसा देखा हुआ, सुना हुआ, पढा हुआ, अनुमान किया हुआ ज्ञान मन में है, वैसा ही वाणी से बोलना और शरीर से आचरण करना ‘सत्य’ कहलाता है।
सत्य का फल- जब मनुष्य निश्चय करके मन, वाणी तथा शरीर से सत्य को ही मानता, बोलता तथा करता है, वे सब सफल होते है।
3.अस्तेय– किसी वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना उस वस्तु को न तो शरीर से लेना, न लेने के लिए किसी को वाणी से कहना और न मन में लेने की इच्छा करना ‘अस्तेय’ कहलाता है।
अस्तेय का फल- मन, वाणी तथा शरीर से चोरी छोड देनेवाला व्यक्ति, अन्य व्यक्तियो का विश्वासपात्र और श्रद्धेय बन जाता है। ऐस् व्यक्ति को अध्यात्मिक एवं भौतिक उत्तर गुणो व उत्तम पदार्थो की प्राप्ति होती है।
4.ब्रह्मचर्य– मन तथा इन्द्रियों पर संयम करके वीर्य (vital power) की रक्षा करना।
ब्रह्मचर्य का फल- मन, वचन तथा शरीर से संयम करके, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति को, शारीरिक तथा बौद्धिक बल की प्राप्ति होती है।
5.अपरिग्रह– हानिकारक एवं अनावश्यक वस्तुओ तथा विचारो का संग्रह न करना ‘अपरिग्रह कहलाता है।
अपरिग्रह का फल- अपरिग्रह धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति में, आत्मा के स्वरूप को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है, अर्थात मैं कौन हूँ, कहा हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊंगा, मुझे क्या करना चाहिए, मेरा क्या सामर्थ्य है? इत्यादि प्रश्न उसके मन मे उत्पन्न होते है।
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२) योग (Yoga) का दूसरा अंग ‘नियम’के भी पांच भाग है:-
(क) शौच (ख) संतोष (ग) तप (घ) स्वाध्याय (ड.) ईश्वर प्रणिधान
1.शौच– अर्थात स्वच्छता रखना यह दो प्रकार की होती है –
पहली बाहरी स्वच्छता दूसरी आन्तरिक स्वच्छता।
शरीर, वस्त्र, स्थान, खानपान पवित्र रखना बाहरी स्वच्छता है तथा विद्याभ्यास, सत्य आचरण व सत्संग से अन्त:करण को पवित्र रखना आन्तरिक स्वच्छता है।
शौच का फल (शुद्धि)- बार बार शुद्धि करने पर भी जब साधक व्यक्ति को अपना शरीर गंदा ही प्रतीत होता है तो उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति नही रहती और वह दूसरे व्यक्ति के साथ अपने शरीर का सम्पर्क नही करता। आन्तरिक शुद्धि से साधना कि शुद्धि बढती है, मन एकाग्र तथा प्रसन्न रहता है, इन्द्रियों पर नियंत्रण होता है तथा वह आत्मा और परमात्मा को जानने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है।
2.संतोष– पूर्ण परिश्रम करने के पश्चात् जितना भी धन-सम्पत्ति हो, उतने से ही सन्तुष्ट रहना, उससे अधिक की इच्छा न करना ‘संतोष’ कहलाता है।
संतोष का फल- संतोष को धारण करने पर व्यक्ति विषयो भोगो की इच्छा नष्ट हो जाती है और उसको शान्तिरूपी विशेष सुख कि अनुभूति होती है।
3.तप– सत्य धर्म कि पालना करते हुए भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, हानि-लाभ, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों का प्रसन्नतापूर्वक सहन करना ‘तप’ कहलाता है।
तप का फल- तपस्या का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति का शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ बलवान तथा दृढ होती है तथा वे उस तपस्वी के अधिकार मे आ जाती है।
4.स्वाध्याय– मोक्ष प्राप्ति के साधन वेद उपनिषद,आदि सदग्रन्थो का पढना, ‘ओ३म्’ ‘गायत्री’ आदि का जप करना तथा आत्मचिन्तन करना भी ‘स्वाध्याय’ कहलाता है।
स्वाध्याय का फल- स्वाध्याय करने वालेे व्यक्ति कि अध्यात्मिकता पथ पर चलने की श्रद्धा, रूचि बढती है तथा वह ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव को अच्छी प्रकार जानकर उसके साथ सम्बन्ध भी जोड लेता है।
5.ईश्वर प्रणिधान– शरीर, बुद्धि, बल विद्या, धनादि समस्त साधनो को ईश्वर प्रदत्त मानकर उनका प्रयोग मन, वाणी तथा शरीर से ईश्वर प्राप्ति के लिए ही करना,सांसारिक चीजें धन, मन यश आदि की प्राप्ति के लिए न करना, ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।
ईश्वर प्रणिधान का फल- ईश्वर को अपने अन्दर-बाहर मानकर तथा ईश्वर मेरे को देख, सुन रहा है, ऐसा समझने वाले व्यक्ति की समाधि शीघ्र ही लग जाती है।
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अब योग (Yoga) के शेष छ:अंगो की परिभाषा बतायी जाती है:-
(३) आसन (४) प्राणायाम (५) प्रत्याहार (६) धारणा (७) ध्यान (८) समाधि
३) आसन– ईश्वर के ध्यान के जिस स्थिति मे सुखपूर्वक, स्थिर होकर बैठा जाये उस स्थिति का नाम ‘आसन’ है। जैसे: पद्मासन, सिद्धासन आदि।
आसन का फल- आसन का अच्छा अभ्यास हो जाने पर योगाभ्यासी को उपासना काल मे तथा व्यवाहार काल में सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्द्व कम सताते है, तथा योगाभ्यास की आगे की क्रियाओ को करने मे सरलता होती है।
१ घटिका = 24 मिनट तक निश्चल बैठने का अभ्यास सिद्ध हो जाने पर प्राणायाम का अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिये।
४) प्राणायाम– किसी आसन पर स्थिरतापूर्वक बैठने के पश्चात मन की चञ्चलता को रोकने के लिए, श्वास-प्रश्वास की गति को रोकने के लिए जो क्रिया की जाती है, उसे प्राणायाम कहते है।
महर्षि पतञ्जलि के अनुसार, प्राणायाम 4 प्रकार के होते हैं।
1. वाह्य-वृत्ति
2. आभ्यान्तर-वृत्ति
3. स्तम्भ-वृत्ति
4. वाह्य-आभ्यान्तर विषय-आक्षेपी
प्राणायाम का फल- प्राणायाम करने वाले का अज्ञान निरन्तर नष्ट होता जाता है तथा ज्ञान की वृद्धि होती है। स्मरण शक्ति तथा मन एकाग्रता में आश्चर्यजनकवृद्धि होती है। वह रोग-रहित होकर उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त होता है।
५) प्रत्याहार– मन के रूक जाने पर नेत्रादि इन्द्रियो का अपने विषयो के साथ सम्बन्ध नही रहता, अर्थात इन्द्रियाँ शान्त होकर मन स्वरूप के अनुरूप हो जाती है, इसे ‘प्रत्याहार’कहते है। आहार बाहर से होता है, प्रत्याहार अन्दर से होता है।
प्रत्याहार का फल- प्रत्याहार की सिद्धी होने से योगाभ्यासी का इन्द्रियों का अच्छा नियन्त्रण हो जाता है अर्थात वह अपने मन को जहाँ और जिस विषय मे लगाना चाहता है लगा लेता है तथा जिस विषय से मन हटाना चाहता है लगा देता है।
६) धारणा– ईश्वर का ध्यान करने के लिए आँख बन्द करके मन को मस्तक, भ्रूमध्य, नास्तिक, कण्ठ, ह्रदय, नाभि आदि किसी एक स्थान पर स्थिर करने या रोकने का नाम ‘धारणा’ है।
धारणा का फल- मन को एक ही स्थान पर स्थिर करने के अभ्यास से ईश्वर विषयक गुण-कर्म स्वभावो का चिन्तन करने से (ध्यान में ) दृढता आती है, अर्थात ईश्वर विषयक ध्यान शीघ्र नही टूटता, यदि टूट भी जाय तो दुबारा सरलतापूर्वक किया जा सकता है।
७) ध्यान– धारणा के स्थान पर मन को लम्बे समय तक रोकना और उस समय ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का निरन्तर चिन्तन करना किन्तु बीच में किसी अन्य वस्तु का स्मरण न करना ‘ध्यान ‘कहलाता है।
ध्यान का फल- ध्यान का निरन्तर अभ्यास करते रहने से समाधि की प्राप्ति होती है तथा उपासक व्यवहार सम्बंधी समस्त कार्यो को दृढ़तापूर्वक, सरलता से सम्पन्न कर लेता है।
८) समाधि– अपने स्वरूप का शून्यवत् अनुभव होना और केवल ईश्वर के आन्नद मे निमग्न होने की अवस्था को ‘समाधि’ कहते है।
समाधि का फल- समाधि का फल है, ईश्वर का साक्षात्कार होना। समाधि अवस्था मे साधक समस्त भय, चिन्ता, बन्धन आदि दुखो से छूटकर ईश्वर के आन्नद कि अनुभूति करता है तथा ईश्वर कि समाधि काल मे ज्ञान, बल, उत्साह, निर्भयता स्वतन्त्रा आदि की प्राप्ति करता है।